क्या हम ज्योतिष को केवल धर्म या परम्पराओं की दृष्टि से ही देख सकते हैं या?
संभवतः ये एक महत्वपूर्ण प्रश्न है, क्योंकि ज्योतिष को ज्योतिष, नजूमी, एस्ट्रोलोजर आदि अनेक नामों से दुनिया मे जाना जाता है, और संभवतः दुनियाभर मे ज्योतिष आदि का इल्म रखने वाले सभी लोगों से वहाँ की परम्पराओं की रक्षा करने वाले या तथाकथित धार्मिक या परंपरावादी लोग ये उम्मीद जरूर रखते हैं कि उनसे पहले के या पुराने बुजुर्ग लोग जिन बातों पे तवक़्क़ो रखते थे उन बातों को ‘पंचांग’ (एक प्रकार के कैलेंडर) की दृष्टि से बताएं के अब के बरस या आने वाले वर्षों मे उन परम्पराओं की ‘तारीख’ (इतिहास) का संयोग आने वाले समय मे कैसे और कब होगा। अब क्योंकि समाज मे बहुत से और विषयों जिनमे से कई को विज्ञान मे सम्मिलित किया जा सकता है अन्य कई विषयों को सामाजिक ज्ञान के विषयों मे शामिल किया जा सकता है, किन्तु गणना की दृष्टियों मे खगोल भौतिकी से सम्बद्ध इस विषय को दुनिया भर मे पूरी तरह से विज्ञान सम्मत विषय के रूप मे इसलिए भी नही स्वीकारा जा सका है, क्योंकि संभवतः तमाम या भिन्न देश काल परिस्तिथियों मे ज्योतिष आदि विषयों का इल्म रखने वाले लोग इस विषय को अनुसंधान का विषय न मानकर अधिकांशतः इसे यथास्तिथी मे ही स्वीकार करते चले आते हैं और विषय को लेकर भविष्य की कोई रूपरेखा सामने नही आती अपितु विज्ञान सम्मत तरीकों से परीक्षण के आदी लोग इन विषयों पर कार्य अनुसंधान करने वाले लोगों की बातों, पत्रिकाओं मे छपे उनके वृहद लेखों को दरकिनार कर इन्हे छद्मविज्ञानी वर्ग मे धकेल देते हैं, अर्थात वे लोग जो विज्ञान सम्मत नियमों का सहारा लेकर तमाम तरह की भ्रांतियों को बनाते हैं या पहले से चली आ रही तथाकथित ‘प्राचीन'(Ancient) भ्रांतियों एवं विसंगतियों को बढ़ावा देते रहते हैं और विषयपरक ज्ञान एवं अनुसंधान से जितना संभव हो उतना बच कर ‘यथास्तिथीवाद'(Existentialism) या
अस्तित्ववाद को बनाए रखने मे अपना सहयोग चरम पर जाकर या चरमपंथी होकर करते हैं, अन्य शब्दों मे संभवतः इन्हे चरमपंथवादी मानकर इनसे मुख्य धारा की विज्ञान ने किनारा करने के लिए इन्हे ‘छद्मविज्ञानी’ (Pseudoscientist) वर्ग मे धकेला है। किसी भी नए ज्ञान को सीखने मे वक्त लगता है और उसी प्रकार किसी ज्ञान से जुड़ी विसंगतियों को जानने पहचानने मे भी वक्त लगता है, और इस तरह नया अनुसंधान दशको, शताब्दियों के काल खंडो मे अप्रचलित हो गयी विसंगतियों से दूरी बनाने के लिए विषय सुधारक अनुसंधानकर्ताओं की आवश्यकता बनी रहती है, अन्यथा वो जो अब तक प्रचलित है उस पर प्रश्न चिन्ह लगाए बिना एक यथास्तिथीवादी की भांति मानवता को प्रगति की ओर उन्मुख देखने वाले बहुत से लोगों की दृष्टियों से दूरी बनाए रखना नियति समकक्ष हो जाता है।
अपूर्ण लेख…. आगे भी जारी रहेगा।-/
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