‘ज्योतिष’ पंचांग इतिहास पर्यवेक्षण प्रक्रिया भी
प्राचीन भारतीय मान्यताओं के अनुसार सम्राट कनिष्क के द्वारा बनवाया गया शक संवत सबसे प्राचीन उपलब्ध पंचांग है, शक संवत से पहले भी बहुत से पंचांग उस समय के समाज में प्रचलित थे, किन्तु तमाम तरह की अशुद्धियों के कारण ही संभवतः उन्हे बिसार दिया गया हो। कालांतर में शक संवत और एकाध अन्य पंचांगों से प्रेरणा प्राप्त विक्रम संवत पंचांग भी भारतीय मानस के अस्तित्व में आ गया।
जबकि पश्चिमी मान्यताओं के अनुसार ग्रेगोरियन कैलेंडर के अस्तित्व में आने का भी अपना ही एक विचित्र सा इतिहास है, पहली बार इटली के एक विद्वान ड़ाओनिसियस एक्सिगुअस के संरक्षण में ५२७ ई में एक ईसा कैलेंडर प्रचलन में आया इससे पूर्व पश्चिमी समाज में भी कई तरह की अशुद्धियों वाले सूर्य और चंद्र आधारित पंचांग या कैलेंडर मौजूद थे, जैसे ईसा पूर्व पहली सदी में जूलियस सीजर के शासन काल में ईसा पूर्व ४६ सन में ३६५ दिन को एक बार ४५५ दिन के वर्ष से पूर्व के पंचांग की अशुद्धियों को दूर करने का एक प्रयास दर्ज़ है, तदनुपरान्त जूलियस सीजर के शासन काल में दर्ज़ किए गए कई अन्य कैलेंडर सुधार भी दर्ज़ हैं जुलाई के माह का उसके नाम से जाना जाना भी उसके द्वारा किए गए सुधारों में से एक है।
जूलियस के बाद अगस्तस जिनके नाम से वर्तमान में प्रचलित अगस्त माह जाना जाता है, इस प्रकार हम देखते हैं कि रोम के दो शासकों जूलियस और अगस्तस ने पश्चिमी पंचांगों में उपयुक्त सुधार कर वर्तमान में प्रचलित कैलेंडर की आधारशिला रखी जो १५८२ के बाद पोप ग्रेगोरी नाम से अंतिम परिवर्तन को प्राप्त होने के बाद जो कैलेंडर वर्तमान में हमें उपलब्ध है वो प्रचलन में आया।
इस प्रकार हम पंचांग या कैलेंडर के संक्षिप्त इतिहास पर एक दृष्टिपात करते हुए ज्योतिष में प्रयोग होने वाले तमाम कैलेंडरों या पंचांगों की आरंभिक अशुद्धियों और कालांतर में आए महत्वपूर्ण परिवर्तनों से भी परिचित हो चुके हैं, मूलतः दुनिया में पाए जाने वाले सभी पंचांगों के मूल में आकाश में स्पष्ट दिखाई देने वाले प्रकाशमान तारों को ही आधारभूत स्तम्भ की तरह लिया गया है।
वर्तमान समय की दुनिया में सूर्य आधारित या चंद्र आधारित पंचांग ही अधिक प्रचलित हैं, जबकि भारत जैसे एकाध देशों में सूर्य और चंद्र आधारित संयुक्त पंचांग अधिक प्रचलित हैं, और दोनों को संयुक्त करने पर गणना में दिनों की संख्या आदि संभावित अशुद्धियाँ अधिक मास की संकल्पना या व्यवस्था से दूर कर लिया गया है।
इस प्रकार हम इस निष्कर्ष या तथ्य आदि पर स्वयं को पहुंचा हुआ मान सकते हैं कि जिस प्रकार प्राचीन आदिम समाज ने आकाश में प्रकाशमान और मानव आँखों से अवलोकित हो जाने वाले तारों को ऋतुओं महीनों या वर्षों की चक्रीयता में विभाजित पाया, आदिम समाज की खेती से जुड़ी मूलभूत आवश्यकताओं में भी ऋतुओं या मासों की चक्रीयता को सम्बद्ध पाया, और आवर्ती या तमाम चक्रीय घटनाओं के साथ ही प्राचीन आदिम समाज ने अपने पर्यवेक्षण में जहां जहां आवृति या चक्रीय प्रतिमान उन्हे कहीं कहीं किसी मानव जीवन के जन्म से लेकर मृत्यु तक भी दर्ज़ किया गया।
हम आदिम समाज या कालांतर में मानव समाज द्वारा महत्वपूर्ण व्यक्तियों समाजों के इतिहास के अवलोकन या पर्यवेक्षण को वर्तमान में प्रचलित तमाम इतिहास की किताबों में पढ़ते ही हैं, ठीक इसी तरह ज्योतिष के प्राचीन दस्तावेज़ भी इतिहास के दस्तावेज़ हैं। आवृतियों या पंचांग के द्वारा मानव जीवन में होने वाली किसी प्रकार की संभावित चक्रीयता की व्याख्या कर पाने में अक्षमता जब जब दृष्टिगत होती है, ज्योतिष के प्राचीन दस्तावेज़ और वर्तमान में बन रहे ज्योतिष एवं रहस्यवाद आदि की वृहद सीमाओं में आने वाले नए दस्तावेजों को छद्म ज्ञान विज्ञान की सीमाओं में समेटा जाना केवल मात्र संयोग नही बल्कि पर्याप्त अनुसंधान का आभाव मात्र है।
/////////
‘उद्धरण’ (Citations)
नोट> इस लेख के कुछेक संदर्भ ‘साइन्स जरनी’ (Science Journey) नामक एक यू ट्यूब चैनल से उद्धृत हैं, एवं ज्योतिष को अंधविश्वास या छद्म ज्ञान कह खारिज करते हुए विज्ञान की प्रतिष्ठा में डॉ बेक्की के द्वारा की गयी एक टिप्पणी को मद्देनज़र हमें इस लेख शृंखला को लिखने की प्रेरणा प्राप्त हुई है।
Recent Comments