दर्शन की ‘सात्यता’ (Continuum philosophies)
(सातत्य एक ऐसी चीज़ है जो चलती रहती है, समय के साथ धीरे-धीरे बदलती रहती है, सतत वस्तु शृंखला)
हो सकता है, आप किसी ऐसे राज्य या देश काल परिस्थितियों मे केवल एक नागरिक की भांति अपने आस पास की चीज़ों, संभावनाओं या वस्तुगत परिस्थितियों को नेविगेट या स्वयं को जीवन के मार्गों मे मार्ग भ्रमित होने से बचने का प्रयास कर रहे हों, परिस्थिति चाहे कुछ भी हो, आपका सामना किसी न किसी दर्शन या अन्य शब्दों मे दुनिया मे मौजूद किसी न किसी अवरोध, प्रतिरोध, या गतिरोध से होगा ही होगा, इसके उपरांत ही आप किसी निर्णय पर पहुंचेंगे, और जिस किसी निर्णय पर भी पहुंचेंगे वो किसी न किसी बहुत वृहद, कई दफ़े विस्तीर्ण दर्शन या मत से प्रभावित होकर ही तो गुजरेंगे ऐसे मे क्या आप कभी भी किसी ऐसे निर्णय पर पहुँच सकते हैं, जो बेहद सटीक या सबसे सही हो जिसके उपरांत कभी कोई गतिरोध अवरोध आदि अनादि इत्यादि से आपका सामना ही न हो, क्या कभी ऐसा हो सकता है? क्या कभी किसी के भी साथ ऐसा हुआ है? क्या अब तक हुए किसी वैज्ञानिक, चिंतक, दार्शनिक या तमाम महत्वपूर्ण विषय विशेषज्ञों के साथ ऐसा हुआ है के वो अपने चिंतन या अपने विषय की महारत मे इतना आगे पहुँच गए हों के उनके द्वारा प्रतिपादित तथाकथित सत्य की कोई भी आलोचना या प्रतिरोध हुआ ही न हो और उनके उस श्रेष्ठतम सत्य को शत प्रतिशत उनके ही कुलीन बौद्धिक समुदायों मे अंतिम सत्य के रूप मे स्वीकार कर लिया गया हो, संभवतः ऐसा अभी तक तो नही हुआ होगा और यदि कभी ऐसा हुआ भी हो तो वैसा समुदाय, वो स्वीकार्यता की जानकारी सूचनाएँ अब शायद विलुप्त या विलुप्तप्रायः हो चुकी हैं, अर्थात दर्शन की सात्यता का मूल प्रश्न अभी जस का तस वृहद ब्रह्माण्ड चिंतन प्रश्नों को रचते हुए अपनी विस्तीर्णता मे आगे ही आगे बढ़ता जा रहा है। ऐसे मे एक दर्शन के विद्यार्थी एवं ज्योतिष अनुसंधानकर्ता होने के कारण हम कभी भी ये स्वीकार नही कर सकते के कोई दर्शन सर्वश्रेष्ठ या सर्वमान्य हो चुका है या हो रहा है, इसी क्रम मे किसी राज्य या देश काल परिस्थितियों मे पाए जाने वाले सभी नेतृत्व या राजनैतिक दर्शन भी समाते हैं अन्य शब्दों मे कोई भी राजनैतिक दर्शन केवल अन्य किसी सात्यता लिए हुए एक वृहद दर्शन की छत्रछाया मे समाया हुआ एक वैधानिक ज्ञान एवं अनुसंधान प्र्कल्प मात्र ही तो है।
अब क्योंकि ये दर्शन भी अंतिम सत्य नही होते इसलिए ये किसी भी राज्य के अंतिम विधान या संविधान को पूर्ण रुपेण अपनी ही एक राजनैतिक दृष्टि की सीमाओं मे न तो बांध सकते हैं न ही उसे अपने घोषणा पत्र या मुख पत्रों से पूर्ण रुपेण परिवर्तित ही कर सकते हैं, दुनियाभर मे कोई भी राज्य चाहे कितना ही एक दर्शन के अधीन स्वयं को पाता हो, किन्तु कूटनीति या अंतराष्ट्रीय संबंद्धों की दृष्टियों मे उसे अन्य दर्शनों को भी न्यूनाधिक स्वीकृति प्रदान करनी ही पड़ती है।
अर्थात यदि आप किसी भी कारण से किसी दर्शन के अतिरेक को अपने निज धर्म या ज्ञान की सीमाओं मे स्वीकारना नही चाहते हैं तो आप दुनिया भर मे कहीं भी स्वतंत्र हैं, किन्तु अंतर केवल आपके अस्वीकार्यता या विचित्रता के प्रति अन्य विचारों के द्वारा आने वाले अवरोध प्रतिरोध की तीव्रताओं और उन्हे उस राज्य मे प्राप्त अनियंत्रित शक्ति का ही होगा, अर्थात आपका दर्शन शक्ति संतुलन के आभाव मे अशक्त महसूस कर सकता है किन्तु ऐसा बिल्कुल भी नही है कि जो आपका पसंदीदा या जो दर्शन आपको प्रिय है वो असत्य है, अन्य शब्दों मे यदि आप किसी राज्य या देश काल परिस्थितियों मे अपने दर्शन को लेकर जीवन मे आगे बढ़ना चाहते हैं तो आगे बढ़ सकते हैं, और प्रतिरोध आपके दर्शन को और अधिक प्रौढ़ एवं शशक्त करने का ही कार्य करेंगे यदि वो इतने प्रबुद्ध हैं तो?
/////
यह लेख अभी एक प्रश्न के साथ अपूर्ण है, किन्तु सुझाव आमंत्रित हैं।
Recent Comments